Bhaktamar Stotra Shloka-1 With Meaning

Abhishek Jain
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Bhaktamar Stotra Shloka-1 With Meaning

भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म का महान प्रभावशाली स्तोत्र है । इस स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग ने की थी । 

इस स्तोत्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई थी , जो इस स्तोत्र की मूल भाषा है, परन्तु यदी आपको संस्कृत नही आती तो आपकी सुविधा के लिए Bhaktamar Stotra के श्र्लोको (Shloka) को हमने मूल अर्थ के साथ - साथ हिन्दी में अनुवादित करते हुये उसका अर्थ भी दिया है. 

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साथ हि साथ जिन लोगो को English आती है और संस्कृत नही पढ सकते वह सधार्मिक बंधु भी English मे Bhaktamar stotra का पाठ कर सकते है । 

इस प्रकार से Bhaktamar Stotra Shloka-1 With Meaning की सहायता से आप आसानी से इस स्तोत्र का पाठ कर सकते है ।

चाहे भाषा कोई भी हो हमारी वाणी से श्री आदीनाथ प्रभु का गुणगाण होना चाहिए । नित्य प्रातः काल मे पूर्ण शुद्धता के साथ श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ अवश्य करें ।

जानिये - bhaktamar-stotra-shloka-all-in-one


Bhaktamar Stotra Shloka-1

Bhaktamar Stotra Shloka - 1

सर्व विघ्न उपद्रवनाशक

(In Sanskrit)

भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-

मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।

सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा-

वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥

(In English)

Bhaktamara-pranata-maulimani-prabhana –

mudyotakam dalita-papa-tamovitanam |

samyak pranamya jina padayugam yugada-

valambanam bhavajale patatam jananam ॥ 1॥

Explanation (English)

Having duly bowed down at the feet of Bhagwan Adinath, the first Tirthankar, the divine glow of his nails increases luster of jewels of their crowns. Mere touch of his feet frees the beings from sins. He who submits himself at these feet is saved from taking birth again and again. I offer my respectful salutations at the feet of Bhagavan Adinath, the propagator of religion at the beginning of this era.

(हिन्दी में )

सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें,अंतर पाप-तिमिर सब हरें ।

जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।।

(भक्तामर स्तोत्र के प्रथम श्लोक का अर्थ )

झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)|


" भगवान ऋषभदेव की जय "


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