तीर्थंकर गोत्र के बीस स्थानक कौन - कौनसे है ?

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तीर्थंकर गोत्र के बीस स्थानक होते है । तीर्थंकर महाप्रभु सर्वज्ञ होते हैं। वे प्रश्न करने वाले के हर प्रश्न का उत्तर बिना पूछे देते हैं। वे जन-कल्याण के लिए धर्मोपदेश करते हैं। वे स्वयं तरते हैं तथा औरों को तारने में सक्षम होते हैं। वे स्वयंबुद्ध, पुरुषोत्तम, शिव, अरिहंत, केवली, जिन कहलाते हैं ।

तीर्थंकर गोत्र के बीस स्थानक

भगवान महावीर की तीर्थंकर गोत्र की साधना

जितनी आत्मा इस सृष्टि में हैं, सबमें परमात्मा बनने की शक्ति है। जब किसी जीव को तीर्थंकर नामकर्म उदय का बंध होता है , तब वह जीव अपने आगमी तीसरे भव में तीर्थंकर बन जाता है । तीर्थंकर नामकर्म जिसभव में बंधन होता है , उसके तीसरे भव में जीव आत्मा तीर्थंकर बन जाती है । जैन धर्म में इससे संबधित ओली - तप बहुत प्रसिद्ध है ।

तीर्थकर नामकर्म गोल जिन कारणों से उपार्जन होता है उन्हें २० स्थानक कहते हैं। इन्हीं की आराधना कर किसी जन्म में तीर्थंकर का जीव लम्बे समय तक तप करके तीर्थंकर नामकर्म बंध बाँधता है। इन बोलों का विवेचन इस प्रकार है -

(१) आरिहंत भक्ति

(२) सिद्ध भक्ति

(३) गुरु भक्ति

(४) प्रवचन भक्ति

(५) श्रुतज्ञान में स्थविर की भक्ति

(६) सूत्र बहुश्रुत, अर्ध बहुश्रुत और सूत्र व अर्थ दोनों के जानकारों की भक्ति

(७) बाह्य व आभ्यन्तर तप के धारक मुनियों की सेवा भक्ति

(८) निरन्तर ज्ञानोपयोग के रसिक बनने से

(९) शुद्ध सम्यक्त्व धारण करने से

(१०) ज्ञान आदि प्राप्त कर मन, वचन, काया से विनय करने से

(११) शुद्ध भाव से प्रतिक्रमण करने से

(१२) मूलगुण और उत्तरगुणों का पालन करने से

(१३) शुभ ध्यान

(१४) बाह्य व आभ्यन्तर तप करने से

(१५) साधु-महात्मा को सुपातदान देने से

(१६) आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, रोगी, नवदीक्षित, सहधर्मी, कुल, गण और संघ की सेवा भक्ति से

(१७) गुरुजनों की भक्ति से

(१८) नया ज्ञान पढ़ने, चिन्तन करने के अभ्यास से 

(१९) श्रुतज्ञान की भक्ति से 

(२०) प्रवचन प्रभावना से ।

इस प्रकार सें तीर्थंकर नामकर्म उपाजर्न के तीर्थंकर गोत्र के बीस स्थानक कहे गयें है ।

अगर कोई भी त्रुटी हो तो " तस्स मिच्छामी दुक्कड़म "


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" जय जिनेन्द्र "

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