जैन धर्म में श्रावक के 5 अभिगम कौन से है ?

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जैन धर्म में अभिगम का मतलब क्या होता है ?

अभिगम का मतलब उपाश्रय ( जैन भवन ) या सन्तों के दर्शन करने जाते समय श्रावक को ध्यान में रखने योग्य बातो को अभिगम कहते है ।

जैन धर्म में अभिगम का मतलब क्या होता है ?

जैन धर्म में श्रावक के 5 अभिगम कौन से है ?

जैन श्रावक / श्राविका के 5 अभिगम निम्नलिखित है -

1 - सचित का त्याग - सब्जी, घड़ी, मोबाइल आदि, संयोगवश यह जब साथ मे हो तो सन्तो के चरण छूकर वन्दन न करे। उन्हें दोष का भागी न बनाये। ऐसा करने से उन्हे संघट्टा ( सूक्ष्म जीव हिंसा के कारण मुनी को लगने वाला दोष ) लगता है , अतः एक श्रावक को विवेक रखकर हि उचित दूरी से साधू महाराज के दर्शन करने चाहिए । केवल तभी चरण स्पर्श करें जब आप सचित वस्तुओ से दूर हो ,आपके पास सैल की घडी , स्मार्टफोन भी नही होना चाहिए । इसके अलावा भी बहुत सी सचित वस्तुए यथा देव, गुरु के समीप जाते समय इलायची, बीज सहित मुनक्का (बड़ी दाख), छिलके सहित बादाम, पान, फल, फूल, बीज, अनाज, हरी दातौन, सब्जी आदि सचित्त वनस्पति, कच्चा पानी, नमक, लालटेन, चालू टार्च, सेल की घड़ी, मोबाइल फोन आदि साथ नहीं ले जाना।


2. अचेत का विवेक - जूते, छाता या दिखावे के लिए ज्यादा अलंकार , आदि साथ मे न हो। संयोगवश हो तो उसे उपाश्रय के बाहर छोड़े दें।


3. अंजलिकरण द्वारा मुनी वंदना - कंही भी सन्तो को देखते ही दोनो हाथ से अंजलीपुट बनाकर जघन्य वन्दन करे। फिर अनुकूलता देख मध्यम व उत्कृष्ट वन्दन करे।अपने जोड़े हुए दोनों हाथो को ललाट से लगाकर विनय पूर्वक वंदना करनी चाहिए ।


4. उत्तरासन्न - इसका मतलब है की जब कभी भी आप सन्तो से संवाद करे उस समय मुख पर मुहपत्ति अवश्य रखे। खुले मुह न बोले। किन्ही संयोगों में मुहपत्ति नही तब रुमाल आदि का प्रयोग कर सन्तो से पूर्ण विवेक विनय के साथ बोले। क्योकि श्रमण कभी भी खुले मुँह बात नही करते ।


5. मन की एकाग्रता - यह बहुत जरूरी है की संत का समागम पारसमणी सम है। जिनमे हमे लोहे से सुवर्ण बनाने की क्षमता है। इनके एक एक शब्द को ध्यान से सुने। चित्त को उन्हीं की वाणी में एकाग्र रखे। अपने सभी गृहकार्य के प्रपंचो या पापकार्यों से मन को हटाकर देव-गुरु जो भी फरमाते हैं, उसे एकाग्रता पूर्वक सुनना।


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" जय जिनेन्द्र "

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