Bhaktamar Stotra Shloka-46 With Meaning

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 Bhaktamar Stotra Shloka-46 With Meaning

भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म का महान प्रभावशाली स्तोत्र है । इस स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग ने की थी । इस स्तोत्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई थी , जो इस स्तोत्र की मूल भाषा है, परन्तु यदी आपको संस्कृत नही आती तो आपकी सुविधा के लिए Bhaktamar Stotra के श्र्लोको (Shloka) को हमने मूल अर्थ के साथ - साथ हिन्दी में अनुवादित करते हुये उसका अर्थ भी दिया है , साथ हि साथ जिन लोगो को English आती है और संस्कृत नही पढ सकते वह सधार्मिक बंधु भी English मे Bhaktamar stotra का पाठ कर सकते है । इस प्रकार से Bhaktamar Stotra Shloka-46 With Meaning की सहायता से आप आसानी से इस स्तोत्र का पाठ कर सकते है ।

चाहे भाषा कोई भी हो हमारी वाणी से श्री आदीनाथ प्रभु का गुणगाण होना चाहिए । नित्य प्रातः काल मे पूर्ण शुद्धता के साथ श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ अवश्य करें ।

Bhaktamar Stotra Shloka-46

 Bhaktamar Stotra Shloka - 46

कारागार आदि बन्धन विनाशक

(In Sanskrit)

आपाद-कण्ठ-मुरुशृंखल-वेष्टितांगा,

गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः ।

त्वन्नाम-मंत्र-मनिशं मनुजाः स्मरंतः

सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवंति ॥46॥

(In English)

apada - kanthamurushrrinkhala - veshtitanga,

gadham brihannigadakotinighrishtajanghah |

tvannamamantramanisham manujah smarantah,

sadyah svayam vigata-bandhabhaya bhavanti || 46 ||

Explanation (English)

O Liberated one ! Persons thrown in prison, chained 

from head to toe, whose thighs have been injured by the 

chain, gets unshackled and freed from enslavement just 

by chanting your name.

(हिन्दी में )

पाँव कंठ तें जकड़ बाँध साँकल अतिभारी |

गाढ़ी बेड़ी पैर-माहिं जिन जाँघ विदारी ||

भूख-प्यास चिंता शरीर-दु:ख जे विललाने |

सरन नाहिं जिन कोय भूप के बंदीखाने ||

तुम सुमिरत स्वयमेव ही, बंधन सब खुल जाहिं |

छिन में ते संपति लहें, चिंता भय विनसाहिं ||४६||

(भक्तामर स्तोत्र के 46 वें श्लोक का अर्थ )

जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है|


" भगवान ऋषभदेव जी की जय "

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" जय जिनेन्द्र "

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