जैन श्रावक के चौदह नियम कौन - कौन से है ?

Abhishek Jain
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जैन श्रावक के चौदह नियम

श्रमण संस्कृति का मूल लक्ष्य है - भोग से त्याग की ओर जाना । श्रावक (Jain Shravak) के जीवन में विवेक का विकास होना चाहिए । बिना विवेक के हेय एवं उपादेय का बोध नहीं हो सकता। क्या छोड़ने योग्य है और क्या ग्रहण करने योग्य है ? यह जानना परम आवश्यक है ।

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श्रावक के 14 नियम

विवेकी श्रावक की सदा यही भावना रहा करती है, कि मैं आरम्भ और परिग्रह का त्याग करके असंयम से संयम की ओर बढ़ता रहूँ । श्रावक के लिए प्रतिदिन चौदह नियम चिन्तन करने की जो परम्परा है , वह इस देशावकाशिक व्रत का ही एक रूप है ।

श्रावक के 14 नियम कौन - कौनसे होते है ?

श्रावक के चौदह नियम इस प्रकार हैं-

१. सचित्त : पृथ्वी, जल, वनस्पति, अग्नि और फल-फूल, धान, बीज आदि सचित्त वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग करना ।

२. द्रव्य : जो वस्तुएँ स्वाद के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से तैयार की जाती हैं, उनके सम्बन्ध में यह परिमाण करे, कि आज मैं इतने द्रव्यों से अधिक द्रव्य उपभोग में न लूँगा ।

३. विगय : शरीर में विकृति एवं विकार को उत्पन्न करने वाले पदार्थों को विगय कहा गया है । जैसे— दुग्ध, दधि, घृत, तैल तथा मिठाई । उक्त पदार्थों का यथाशक्ति त्याग करे, अथवा मर्यादा करे, कि इससे अधिक न लूँगा । 

ये पांच सामान्य विगय है, और मधु एवं मक्खन - ये दो विशेष विगय हैं। इन विशेष विगयों का बिना कारण के उपभोग करने का त्याग करे, और कारणवश उपभोग करने की मर्यादा करे। मदिरा एवं मांस - ये दो महाविगय हैं। श्रावक को इन दोनों का जीवन भर के लिए सर्वथा त्याग करना चाहिए ।

४. पन्नी : 'पन्नी' शब्द प्राकृत का है। इसका अर्थ है - उपानत् अर्थात् जूते, बूट, खड़ाऊँ तथा मौजे भी पन्नी में आते हैं, इनका त्याग करे, अथवा मर्यादा करे ।

५. ताम्बूल : ताम्बूल का अर्थ है-पान । भोजन के बाद में मुखशुद्धि के लिए पान खाया जाता है। पान की, तथा उपलक्षण से सुपारी एवं इलायची आदी मुखवास की मर्यादा करे ।

६. वस्त्र : पहनने, ओढ़ने तथा बिछाने के कपड़ों की मर्यादा करे । 

७. कुसुम : फूल, फूलों की माला और इतर-तेल आदि सुगन्धित पदार्थों की मर्यादा करे ।

८. वाहन : वाहन का अर्थ है पवारी | गज, अश्व, ऊट, गाड़ी, तांगा, रिक्शा, मोटर, रेल, जहाज, नाव एवं वायुयान आदि सवारी के साधनों का यथाशक्ति त्याग कर या मर्यादा करे ।

९. शयन : शय्या, पलंग, खाट, बिस्तर, मेज, बेंच और कुर्सी आदि की मर्यादा करे ।

१०. विलेपन : शरीर पर लेप करने योग्य पदार्थों का— जैसे, केशर, कस्तूरी अगर तगर, चन्दन, साबुन और तेल आदि- त्याग करे, या मर्यादा करे।

११. ब्रह्मचर्य : स्थूल ब्रह्मचर्य - स्वदार सन्तोषरूप एवं परदार-वर्जनरूप व्रत स्वीकार करते समय जो अमुक दिनों की मर्यादा रखी है, उसका भी यथाशक्ति त्याग करे, या उसमें संकोच करे ।

१२. दिशा मर्यादा : दिशापरिमाण-व्रत स्वीकार करते समय गमन एवं अगमन के लिए जो क्षेत्र मर्यादा की थी, उस क्षेत्र को और अधिक मर्यादित करे, संकोच करे ।

१३. स्नान : श्रावक शरीर शुद्धि के लिए स्नान करता है। वह स्नान दो प्रकार का है – देशस्नान एवं सर्वस्नान, शरीर के कुछ भाग को धोना

जैसे हाथ धोना, पैर धोना एवं मुँह धोना -- यह देशस्नान है। शरीर के समस्त भाग को धोना सर्वस्नान है । स्नान की मर्यादा करना, अथवा सर्वथा त्याग कर देना ।

१४. भक्त : भोजन-पानी के सम्बन्ध में भी मर्यादा करे, कि आज मैं इतने से अधिक मै खाऊंगा, न पीऊंगा ।

उक्त चौदह नियम श्रावक के दैनिक कर्तव्यरूप में हैं। यथा शक्ति उक्त पदार्थों का त्याग करना, अथवा त्याग न कर सके तो मर्यादा करना ।

चौदह नियमों का पालन श्रावक अपनी त्यागशक्ति को विकसित करने के लिए ही करता है। वह इन नियमों का पालन कर के धीरे धीरे भोग से त्याग की और बढ़ता है ।


" अगर कोई त्रुटी हो तो तस्स मिच्छामी दुक्कडम "


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