भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी (Suparshvanath) जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर है । प्रभु का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में इक्ष्वाकुं कुल में वाराणसी में हुआ । प्रभु के पिता का नाम सुप्रतिष्ठ तथा माता का नाम पृथ्वी था । प्रभु की देह का रंग स्वर्ण था , प्रभु का प्रतीक चिह्न स्वास्तिक था ।
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प्रभु के शरीर की ऊँचाई 200 धनुष (600 मीटर ) तथा प्रभु की आयु 20,00,000 पूर्व की थी । सुपाश्र्वनाथ जी ने ज्येष्ठ मास की त्रियोदशी को दीक्षा ग्रहण की , प्रभु का साधनाकाल 9 वर्ष का था ।
9 वर्ष के कठोर साधनाकाल के बाद प्रभु ने फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन प्रभु ने कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया और अरिहंत कहलाये ।
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इसके पश्चात् प्रभु ने धर्म का उपदेश दिया और चार तीर्थो की स्थापना कर तीर्थंकर कहलाये । प्रभु के गणधरो की कुल संख्या 95 थी ,इसके पश्चात प्रभु ने फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन सम्मेद शिखर जी में निर्वाण प्राप्त किया और सिद्ध कहलाये ।
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" जय जिनेन्द्र "