प्रभु अनंतनाथ जी जैन धर्म के 14वें तीर्थंकर है । प्रभु अनंतनाथ का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकु कुल में हुआ था । प्रभु अनंतनाथ जी के पिता का नाम सिंहसेन तथा माता का नाम सुयशा था । प्रभु की देह का वर्ण स्वर्ण और इनका प्रतिक चिह्न सेही था ।
तीर्थंकर श्री अनंतनाथ चालीसा
अनन्तनाथ चतुष्टय धारी अनंत, अनंत गुणों की खान अनन्त।
सर्वशुद्ध ज्ञायक हैं अनन्त, हरण करे मम दोष अनन्त ।।
नगर अयोध्या महा सुखकार, राज्य करे सिंहसेन अपार ।
सर्वयशा महादेवी उनकी, जननी कहलाई जिनवर की ।।
द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी, जन्मे तीर्थंकर हितकारी ।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, न्वहन करे मेरु पर जाकर ।।
नाम अनंतनाथ शुभ दीना, उत्सव करते नित्य नवीना ।
सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का, पार नहीं गुण के सागर का ।।
वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का, ज्ञान धरें मुनि श्रुत अवधि का ।
आयु तीस लख वर्ष उपाई, धनुष अर्धशत तन ऊचाई ।।
बचपन गया जवानी आई, राज्य मिला उनको सुखदाई ।
हुआ विवाह उनका मंगलमय, जीवन था जिनवर का सुखमय ।।
पंद्रह लाख बरस बीतें जब, उल्कापात से हुए विरक्त तब ।
जग में सुख पाया किसने कब, मन से त्याग राग भाव सब ।।
बारह भावना मन में भाये, ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये ।
अनन्तविजय सुत तिलक कराकर, देवोमई शिविका पधरा कर ।।
गए सहेतुक वन जिनराज, दीक्षित हुए सहस नृप साथ।
द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मास, तीन दिन धरा उपवास ।।
गए अयोध्या प्रथम योग कर, धन्य विशाख आहार कराकर ।
मौन सहित रहते थे वन में, एक दिन तिष्ठे पीपल तल में ।।
अटल रहे निज योग ध्यान में, झलके लोकालोक ज्ञान में ।
कृष्ण अमावस चैत्र मास की, रचना हुई शुभ समवशरण की ।।
जिनवर की वाणी जब खिरती, अमृत रस कानो को लगती ।
चतुर्गति दुःख चित्रण करते, भविजन सुन पापो से डरते ।।
जो चाहो तुम मुक्ति पाना, निज आतम की शरण में जाना ।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित हैं, कहे व्यवहार में रत्नत्रय हैं ।
निश्चय से शुद्धातम ध्याकर, शिवपद मिलता सुख रत्नाकर ।
श्रद्धा कर भव्य जनों ने, यथाशक्ति व्रत धारे सबने ।।
हुआ विहार देश और प्रान्त, सम्पथ दर्शाए जिननाथ ।
अंत समय गए सम्मेदाचल, एक मास तक रहे सुनिश्चल ।।
कृष्ण चैत्र अमावस पावन, मोक्षमहल पहुचे मनभावन ।
उत्सव करते सुरगण आकर, कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर ।।
शुभ लक्षण प्रभुवर का सेही, शोभित होता प्रभु पद में ही ।
अरुणा अरज करे बस ये ही, पार करो भव सागर से ही ।।
हे प्रभु लोकालोक अनन्त, झलके सब तुम ज्ञान अनन्त ।
हुआ अनन्त भवो का अंत, अदभुत तुम महिमा हैं अनन्त ।।
जानिये - तीर्थंकर अनंतनाथ जी का जीवन परिचय
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" जय जिनेन्द्र "
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