सिद्ध-अर्हन्त-वन्दना स्तुती मूल पाठ

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जैन धर्म में भगवान अरिहंत प्रभु और सिद्ध प्रभु है । जैन धर्म का लक्ष्य आत्मा को परमात्मा बनाना होता है । सरल शब्दो में कहे तो जब कोई आत्मा अष्ट कर्मो में से चार कर्मो का क्षय कर लेती है तो आत्मा को केवलय ज्ञान की प्राप्ती होती है , केवलय ज्ञान की प्राप्ती के साथ ही अरिहंत अवस्था की प्राप्ती होती है और जब आत्मा अपने समस्त अष्ट कर्मो का क्षय कर लेती है तो उसे निर्वाण की प्राप्ती होती है ।

निर्वाण प्राप्त आत्मा की अवस्था ही सिद्ध अवस्था होती है , जिसका कभी भी जन्म व मरण नही होता वह भव बंधनो से मुक्त हो जाती है ।

आत्मा के कर्म क्षय के साधन संवर व निर्जरा होते है । इस प्रकार से जैन धर्म के 24 तीर्थंकर निर्वाण प्राप्त कर सिद्ध भगवान बन गये और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में 20 विहरमान तीर्थंकर विचरण कर रहे है , जो वर्तमान समय में अरिहंत अवस्था में है ।


जैन धर्म का साहित्य प्राकृत भाषा में रचित है । जैसे - हिन्दु धर्म का अधिकांश भाग संस्कृत भाषा में रचित है । जो स्थान हिन्दु धर्म में संस्कृत का है वही स्थान जैन धर्म में प्राकृत भाषा का है । सिद्ध अर्हन्त वंदना का पाठ भी प्राकृत भाषा में हि है । इस पाठ को प्रतिदिन पढ़ने से समस्त अरिहंत और सिद्ध प्रभु की वंदना हो जाती है । प्रतिदिन सामायिक के दौरान सिद्ध-अर्हन्त-वन्दना का पाठ अवश्य करें ।

अरिहंत - सिद्ध स्तुती

सिद्ध-अर्हन्त-वन्दना

चत्तारि अट्ठदस दोअ, वंदिया जिणवरा चउवीसं,
परमट्ठनिट्ठियट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ १ ॥
जे य अइया सिद्धा, जे य भविस्संतिऽणागए काले
सपइ अ वट्टमाणा, सब्वे तिविहेण वंदामि ॥ २ ॥
सिद्धाणं बुद्धाणं पारगयाणं परंपरगयाणं ।
लोगग्गमुवगयाणं नमो सया सबसिद्धाणं ॥ ३ ॥
जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति ।
तं देवदेवमहिअं सिरसा वंदे महावीरं ॥ ४ ॥
इक्को वि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स ।
संसारसायराओ तारेइ नरं वा नारी वा ॥ ५ ॥
पुक्खरवरदीवड्ढे धायइखंडे अ जंबूदीवे अ।
भरहेरवयविदेहे धम्माइयरे नमसामि ॥ ६ ॥
उजिंतसेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स ।
तं धम्मचक्कवट्टि अरिट्ठनेमि नमंसामि ॥ ७ ॥
जय वीयराय! जगगुरु! होउ ममं तुह पभावओ भयवं। भवनिवेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफलसिद्धी॥ ८ ॥
लोगविरुद्धच्चाओ गुरुजणपूआ परत्थकरणं ।
सुहगुरुजोगो तब्बयणसेवणा आभवमखंडा || ९ ||
तमतिमिरविद्धंसणस्स सुरगणनरिंदमहिअस्स ।
सीमाहरस्स वंदे पप्फोडिअ मोहजालस्स ।। १० ॥
सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं च भावओ।
अत्यधम्मगई तच्चं अणुसर्टि सुणेह में ॥ ११॥

" जय जिनेन्द्र "


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