श्री पद्मप्रभु जी चालीसा

Abhishek Jain
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जैन धर्म के छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभु जी

श्री पद्मप्रभु जी चालीसा

कविश्री चंद्र

(दोहा)

शीश नवा अरिहन्त को सिद्धन करूँ प्रणाम ।
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ।।
सर्व साधु और सरस्वती जिनमंदिर सुखकार ।
पद्मपुरी के पद्म को मन-मंदिर में धार ।।

(चौपाई छन्द)

जय श्री पद्मप्रभ गुणधारी, भवि-जन को तुम हो हितकारी ।
देवों के तुम देव कहाओ, पाप भक्त के दूर हटाओ ।।१।।

तुम जग में सर्वज्ञ कहाओ, छट्ठे तीर्थंकर कहलाओ ।
तीन-काल तिहुँ-जग को जानो, सब बातें क्षण में पहचानो ।।२।।

वेष-दिगम्बर धारणहारे, तुम से कर्म-शत्रु भी हारे ।
मूर्ति तुम्हारी कितनी सुन्दर, दृष्टि-सुखद जमती नासा पर ।।३।।

क्रोध-मान-मद-लोभ भगाया, राग-द्वेष का लेश न पाया ।
वीतराग तुम कहलाते हो, सब जग के मन को भाते हो ।।४।।

कौशाम्बी नगरी कहलाए, राजा धारण जी बतलाए ।
सुन्दरी नाम सुसीमा उनके, जिनके उर से स्वामी जन्मे ।।५।।

कितनी लम्बी उमर कहाई, तीस लाख पूरब बतलाई ।
इक दिन हाथी बँधा निरखकर, झट आया वैराग उमड़कर ।।६।।

कार्तिक-वदी-त्रयोदशी भारी, तुमने मुनिपद-दीक्षा धारी ।
सारे राज-पाट को तज के, तभी मनोहर-वन में पहुँचे ।।७।।

तपकर केवलज्ञान उपाया, चैत सुदी पूनम कहलाया ।
एक सौ दस गणधर बतलाए, मुख्य वज्रचामर कहलाए ।।८।।

लाखों मुनि अर्यिका लाखों, श्रावक और श्राविका लाखों ।
संख्याते तिर्यंच बताये, देवी-देव गिनत नहीं पाये ।।९।।

फिर सम्मेदशिखर पर जाकर, शिवरमणी को ली परणा कर ।
पंचमकाल महादु:खदाई, जब तुमने महिमा दिखलाई ।।१०।।

जयपुर-राज ग्राम ‘बाड़ा’ है, स्टेशन ‘शिवदासपुरा’ है ।
‘मूला’ नाम जाट का लड़का, घर की नींव खोदने लागा ।।११।।

खोदत-खोदत मूर्ति दिखाई, उसने जनता को बतलाई ।
चिहन ‘कमल’ लख लोग लुगाई, पद्म-प्रभ की मूर्ति बताई ।।१२।।

मन में अति हर्षित होते हैं, अपने दिल का मल धोते हैं ।
तुमने यह अतिशय दिखलाया, भूत-प्रेत को दूर भगाया ।।१३।।

भूत-प्रेत दु:ख देते जिसको, चरणों में लेते हो उसको ।
जब गंधोदक छींटे मारे, भूत-प्रेत तब आप बकारे ।।१४।।

जपने से जब नाम तुम्हारा, भूत-प्रेत वो करे किनारा ।
ऐसी महिमा बतलाते हैं, अन्धे भी आँखें पाते हैं ।।१५।।

प्रतिमा श्वेत-वर्ण कहलाए, देखत ही हिरदय को भाए ।
ध्यान तुम्हारा जो धरता है, इस-भव से वह नर तरता है ।।१६।।

अन्धा देखे गूंगा गावे, लंगड़ा पर्वत पर चढ़ जावे ।
बहरा सुन-सुनकर खुश होवे, जिस पर कृपा तुम्हारी होवे ।।१७।।

मैं हूँ स्वामी दास तुम्हारा, मेरी नैया कर दो पारा ।
चालीसे को ‘चंद्र’ बनावे, पद्म-प्रभ को शीश नवावे ।।१८।।

(सोरठा)

नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन ।
खेय सुगंध अपार, पद्मपुरी में आयके !!
होय कुबेर-समान, जन्म-दरिद्री होय जो ।
जिसके नहिं संतान, नाम-वंश जग में चले ।।

॥ इति ॥

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