भगवान महावीर और यक्ष (जैन कहानी)

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भगवान महावीर और यक्ष

भगवान महावीर एक बार अस्तिक ग्राम पधारे,उन्होंने मंदिर के पुजारी से मंदिर में ठहरने की आज्ञा मांगी। मंदिर के पुजारी ने कहा इस मंदिर में एक बड़ा ही दुष्ट यक्ष रहता है वह दिन के समय किसी को कुछ नहीं कहता परंतु रात में जो कोई भी इस मंदिर में रहता है उसे वह यातना पूर्वक मार डालता है। प्रभु महावीर मुस्कुराए और मंदिर की तरफ चल दिए प्रभु यहां यक्ष का उद्धार करने ही तो आए थे।

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भगवान महावीर और यक्ष

रात्रि में भगवान महावीर ध्यानमगन खड़े थे, तभी वहां से किसी के हंसने की जोर से आवाज आई,वह मंदिर का दुष्ट यक्ष शूलपाणी था। शूलपाणी ने भयंकर से भयंकर आवाज निकाली । बिजली जैसी गर्जना की भयंकर अट्टहास किया,परंतु भगवान महावीर बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए।इसे देखकर यक्ष को बहुत हैरानी हुई,उसके बाद यक्ष ने विभिन्न प्रकार के जानवरों के रूप बनाये।


यक्ष भयंकर सर्प बनकर भगवान महावीर को डसने लगा,तो कभी भयंकर छिपकली में बदल गया, कभी उसने सिंह का रूप बनाया और कभी भयानक से भयानक दैत्य बन गया । जैसे-जैसे रात बढ़ती गई उस यक्ष का उपसर्ग भी भयंकर से भयंकर होता गया। जब इन सब से भी बात नहीं बनी तब उसने भगवान महावीर को वेदना देना शुरू किया, प्रभु महावीर में तितीक्षा की असीम क्षमता थी ,वह सारी परिस्थितियों को हंसते-हंसते सह गये।


किसी भी साधारण मानव के लिए ऐसी परिस्थितियों में जीना संभव नहीं था परंतु वह तो युगवीर महावीर थे। यक्ष पूरी रात तक भगवान महावीर को उपसर्ग देता रहा, परंतु भगवान महावीर क्षण भर के लिए भी ध्यान से विचलित नहीं हुए।

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जब यक्ष ने अपने सारे यतन अपना लिए उसके बाद भौर का समय आया पूरी रात उसने भगवान महावीर को उपसर्ग दिए लेकिन वो रंच मात्र भी भगवान महावीर को प्रभावित नहीं कर सका, भगवान महावीर के प्राण लेना तो दूर वह उन के ध्यान को भंग तक ना कर पाया। जब सुबह हुई तो वह बहुत ज्यादा लज्जित हुआ उसे अपने किए पर पछतावा होने लगा ।


यक्ष ने कहा यह कोई साधारण मानव नहीं हो सकता, ऐसा कह कर उसने भगवान महावीर से क्षमा याचना की तब भगवान महावीर ने आंखें खोलते हुए कहा "अहिंसा ही परम धर्म है।" हिंसा से हिंसा ही फैलती है आतंकित कभी भी सुखी नहीं हो सकता परम शांति केवल अहिंसा से ही मिलती हैं। अभय व्यक्ति को किसी का भी भय नहीं होता।


महावीर की करूणाम्यी वाणी सुनकर उसका ह्रदय पिघल गया उसने फिर कभी किसी को भी ना सताने का वचन दिया। उस यक्ष का उपद्रव उस दिन के बाद से शांत हो गया ।


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" जय जिनेन्द्र "

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