थावच्चापुत्र की कहानी: जन्म-मृत्यु और वैराग्य
प्रेरक जैन कहानी जो वैराग्य और अमरता के मार्ग को दर्शाती है।
थावच्चापुत्र एक दिन अपनी अट्टालिका पर खड़ा था। उसके कानों में मधुर-मधुर गीत सुनाई दिए। वह उन्हें सुनता गया। उसे बड़ा अच्छा लगा, पर वह जान न सका कि गीत का भावार्थ क्या है और कहां से वह मधुर स्वर-लहरी आ रही है। वह अपनी माता के पास आया और सरलता से पूछने लगा, “माँ! ये गीत कहां गाए जा रहे हैं?"
माँ ने कहा-'बेटा! पड़ोसी के घर पुत्र का जन्म हुआ है। उसकी खुशी में ये गीत गाए जा रहे हैं।' 'अच्छा! पुत्र उत्पन्न होने पर इतनी खुशी होती है?' 'हां, बेटा!' माता ने कहा। 'तो क्या मैं पैदा हुआ था तब भी इसी तरह गीत गाए गए थे?' थावच्चापुत्र अपने बचपन के स्वाभाविक भोलेपन के साथ पूछ बैठा।
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माता ने कहा-'वत्स! जब तुम्हारा जन्म हुआ था तब एक दिन ही नहीं कई दिन तक, इससे भी ज्यादा अच्छे गीत गाए गए थे। खुशियां मनाई गई थीं।' 'माँ! मेरे कान उन गीतों को सुनने के लिए लालायित है"।
वह भागा, पुनः छत पर आया। ध्यान से गीत सुनने लगा। पर अब उन गीतों में वह मधुरता नहीं थी। कान उन्हें सुनना नहीं चाहते थे। वह असमंजस में पड़ गया। **क्या बात है?** वे गीत तो अब नहीं हैं? या गाने वाले दूसरे हैं! कुछ समझ में नहीं आया। वह पुनः माता के पास आया और पूछने लगा "माँ! गीतों में इतना अन्तर क्यों हो गया है? उनकी मधुरता क्यों नष्ट हो गई? ये गीत तो कानों को बड़े अप्रिय लगने लगे हैं।
पुत्र की यह बात सुनकर माता की आंखों में आँसू आ गए। वह बोली-"हमारे उस पड़ौसी का पुत्र मर गया है।" "अभी जन्मा और अभी मर गया?" पुत्र ने कहा। 'हां बेटा! मरना-जीना किसी के वश की बात नहीं है। वह जन्मा तब गीत गाए गए थे। वह मर गया, अब सब रो रहे हैं, विलाप कर रहे हैं।"
"तो मां! क्या तुम भी मरोगी?" "हां बेटा! मरना सबको पड़ता है। मैं भी एक दिन मरूँगा।" "क्या मुझे भी मरना पड़ेगा?" "बेटा, ऐसा प्रश्न नहीं करना चाहिए।" "मां! क्या आपत्ति है मुझे बताने में। क्या मुझे भी मरना पड़ेगा?" "हाँ, एक दिन तुम को भी मरना होगा। इस संसार में कोई भी प्राणी अमर नहीं होता।"
"क्या मृत्यु से बचने का कोई उपाय भी है, मां!" "हां बेटा! इसका उपाय है। जो व्यक्ति साधना के द्वारा अपने कर्मों को नष्ट कर देता है, वह मौत से बच जाता है। फिर वह न जन्मता है और न मरता है। वह अमर हो जाता है।
"मां! साधना के लिए क्या करना होता है?" "बेटा! मुनि-जीवन साधना करने का उचित अवसर देता है। मुनि-जीवन में ध्यान की उत्कृष्ट साधना करने वाला शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।"
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थावच्चापुत्र का मन वैराश्य से भर गया, जन्म-मरण के बन्धन से छूटने की उसकी भावना तीव्र हो गई। वैराग्य बढ़ता गया। मां पुत्र के बढ़ते वैराग्य से प्रसन्न हुई। पुत्र यदि मुक्ति की ओर बढ़ता है तो इससे बढ़कर माता को और क्या प्रसन्नता हो सकती है?
एक दिन बाईसवें तीर्थंकर **अरिष्टनेमि** शहर में पधारे। बालक थावच्चापुत्र भगवान के दर्शन करने गया। भगवान की अमृतमयी वाणी का उस पर जादू का-सा असर हुआ। उसका वैराग्य तीव्र हो उठा। वह भगवान के पास दीक्षा ग्रहण कर हमेशा के लिए **मृत्युञ्जयी** बन गया।
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