भगवान महावीर और गौशालक का उपसर्ग (जैन कहानी)

Abhishek Jain
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भगवान महावीर के दीक्षा पश्चात्‌ 27वां वर्ष चल रहा था । प्रभु महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्टक उद्यान में पधारे थे । उसी समय गौशलक भी उसी नगर में अपने शिष्यों के साथ आया हुआ था । इस नगर में गौशालक के कई अनुयाई थे । जो उसने नैमितक शास्त्र के दुरुपयोग से बनाए थे। मंखलिपुत्र गौशाल इस विद्या के प्रभाव से लोगो को चमत्कार करके दिखाता था और लोगों को अपने मिथ्यात्व के जाल में फसाता था । वह छद्मस्थ था फिर भी झूठे घमंड के कारण खुद को जिन,केवली,तीर्थंकर कहता फिरता था ।

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मंखलिपुत्र गौशाल ने तेजोलेश्या की साधना की थी जो उसने प्रभु महावीर से ही सीखी थी। झूठे मान सम्मान के लिए वह पथभ्रष्ट हो गया और नियतिवाद के सिद्धांत को अटल मानकर वह लोगों में मिथ्यात्व का प्रचार करने लगा । भोले जनमानस में उसके चमत्कारों का प्रभाव हुआ और उसने झूठ के दम पर अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ा ली थी । वह भगवान महावीर से 18 वर्ष से अलग विचरण कर रहा था और वह स्वयं को आजीवक मत का आचार्य भी कहता था । 

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मंखलिपुत्र गौशालक की द्वेष भावना

मंखलिपुत्र गौशालक प्रभु महावीर का प्रथम शिष्‍य था ( सभी शिष्य तीर्थंकरों के गणधर नही होते ) जब प्रभु महावीर अपने साधनाकाल में थे तब प्रभु महावीर के कैव्लय ज्ञान के पूर्व ही गौशालक उनका शिष्य बन गया और उनके साधनाकाल में घटित घटनाओ यथा पुष्प का भाग्य आदी घटना देख उसका नियतिवाद पर विश्वास बढ गया था | वह जानता था कि प्रभु महावीर सर्वज्ञ है परन्तु अपने द्वेष के कारण वह मानना नही चाहता था । इसलिए उसने स्वयं को तीर्थंकर कहना शुरू किया और अपना प्रचार करने लगा । जब भगवान महावीर साधनाकाल में थे तब गौशालक ने अनेको बार अपनी मूर्खता के कारण समस्याएं मोल ली थी । 

मंखली पुत्र गौशाल ने जब सुना की प्रभु महावीर भी इसी नगर में विराजमान है तो वह द्वेष की भावना से भर गया । उसे डर सताने लगा कही प्रभु महावीर अपनी सर्वज्ञता से मेरा भेद न खोल दे । इसलिए पूर्ण क्रोध से प्रभु महावीर का अहित करने के लिए उद्यान की तरफ प्रस्थान करता है ।

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नगर चर्चा और गौतम स्वामी का समाधान

प्रभु महावीर के प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी जी नगर में भिक्षा के लिए जाते है , रास्ते में उन्हे लोगो की चर्चायें सुनाई देती है - " सुना है , आजकल हमारी नगरी में दो तीर्थंकर आये हुये है , एक है भगवान महावीर और दुसरे मंखली पुत्र गौशालक "।

गौतम स्वामी ने यह प्रसंग सुना और सीधे प्रभु महावीर के सामाने प्रस्तुत हुये और बोलो " भंते आप तो सर्वज्ञ है , केवली है तो आप मेरी समस्यां का समाधान करें , आप मुझे बताये की यह मंखली पुत्र गौशाल कौन है ?"

इस पर प्रभु महावीर ने कहा - " मंखली पुत्र गौशाल मेरा प्रथम शिष्य था , मेरे कैव्लय ज्ञान के पूर्व ही यह मेरे साथ भ्रमण करता था , अपने स्वभाव के कारण यह हर जगह , हर समय समस्यां मोल ले लेता था , पर बहुत हि जिज्ञासु भी था । एक बार इसने एक तपस्वी का उपहास किया तो क्रोध में उस तपस्वी ने गौशालक पर तेजोलेश्या छोड दी , तेजोलेश्या से बचाव के लिए मैने उसकी प्राण रक्षा के लिए शीतोलेश्या छोडी थी । इसके पश्चात गौशालक ने मुझसे तेजोलेश्या की विधि जानी और इसका अभयास किया वह थोडा बहुत नैमतिक शास्त्र का भी ज्ञाता है , परन्तु वह अभी तक छद्मस्थ है , वह केवली नही है । मंखली पुत्र गौशालक अपनी झूठी प्रसिद्धी के लिए इस विद्या का दुरुपयोग करने लगा । वह अपनी अज्ञानता के कारण ही ऐसा कर रहा है " । प्रभु महावीर के मुख से अपने प्रश्न कि संतृष्टि पा कर गौतम स्वामी प्रभु महावीर को नमस्कार कर प्रस्थान कर गये ।

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गौशालक की श्रावक आनंद से चर्चा

गौशालक अपने शिष्यो सहित निकलता है तो उसकी दृष्टी प्रभु महावीर के अनुयायी आनंद पर पड़ती है । गौशालक कहता है - "हे !भद्र पुरुष जरा इधर तो आना मै जो बात कह रहा हूँ वह ध्यान से सुनना तुम्हारे धर्माचार्य सर्वज्ञ है , उनकी यश किर्ती चारो दिशाओ में फैली हुई है , अगर तुम्हारे प्रभु ने मेरे बारे में एक भी शब्द बोला या मेरा भेद खोला तो मै तुम्हारे धर्माचार्य प्रभु महावीर को अपने तप - तेज से भस्म कर दुगां " ।

गौशालक कि धमकी सुन कर श्रावक आनंद सीधा प्रभु महावीर के पास जाते है और उन्हे सारा घटना क्रम सुनाते है ।

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श्रावक आनंद की समस्यां का समाधान 

प्रभु महावीर ने आनंद को समझाते हुये कहा - " गौशालक का तेज किसी भी प्राणी को एक झटके में खत्म कर सकता है , परन्तु वह चाहकर भी एक अरिहंत का अहित नही कर सकता । उसमें जितना तप और क्रोध है उससे कही अधिक एक अरिहंत में क्षमा का गुण होता है , अरिहंत में अनंत गुणा ज्यादा शक्ति होती है , इसलिए वह कभी भी अरिहंत को जला नही पायेगा , परन्तु कुछ परिताप अवश्य दे सकता है, इसलिए तुम निशचिंत रहो वह चाहकर भी मेरा अहित नही कर पायेंगा" ।

इसलिए तुम अब जाओं और सभी गणधरो और श्रमणो को सुचित कर दो , गौशालक अपने पूर्ण क्रोध में मेरे उद्यान की तरफ ही आ रहा है , उसकी द्वेषपूर्ण बातो को सुनकर भी कोई भी मुनी उसका उत्तर नही देगा, सभी श्रमण सावधान हो जायें ।

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गौशालक का प्रवेश

गौशालक अपने पूर्ण क्रोध के साथ उद्यान में प्रवेश करता है और कहता है " भंते यह जो आप को गौशालक दिखाई दे रहा है ना, वह सिर्फ उसका शरीर है , अपका शिष्य गौशालक तो कब का परलोक सिधार गया । मुझे कायांतरण कि विद्या आती है , जिसके प्रभाव से मेरी आत्मा किसी के भी शरीर में प्रवेश कर जाती है । अतः यह जो आपको आपका शिष्य नजर आ रहा है , वह आपका शिष्य नही है । गौशालक का शरीर परिषह सहने में समर्थ है इसलिए मैने इसके शरीर में प्रवेश किया है , यह मेरा सातवां शरीरांतक प्रवेश है । इससे पहले मैने 6 और शरीर धारण किये थे ।

1. मेरा पहला शरीररांतक राजगृह नगर में हुआ , कुमार अवस्था में ब्रह्मचार्य के पालन के लिए मैने ब्रह्मण का शरीर धारण किया और उसमे 22 वर्ष तक रहा ।

2. मेरा दुसरा शरीर चंद्रावतरण चैत्य में धारण किया और 21 वर्ष तक रहा ।

3. मेरा तीसरा शरीर चम्पानगरी में बदला और 20 वर्ष तक उसमें रहा ।

4. मेरा चतुर्थ शरीर प्रवेश वारणसी नगरी में रोहक नामक पुरुष के शरीर में हुआ और 19 वर्ष तक उसमें रहा ।

5. पाँचवां शरीर अलिभिआ नगरी में भारद्वज
 ब्रह्मण के शरीर में हुआ और 18 वर्ष तक उसमे रहा ।

6. मेरा छठा शरीर वैशाली के गौतम पुत्र अर्जुन के रूप में हुआ और मैं वहां 17 वर्ष तक रहा ।

7. फिर उसके पश्चात श्रावस्ती नगरी में मैने यें गौशालक का शरीर धारण किया है ।

इसलिए आप जिस गौशालक कि बात कर रहे है, मै वह नही हूँ , मै अन्य गौशालक हूँ ।

इसलिए मै सर्वज्ञ हूँ आप नही । मै तीर्थंकर हूँ , आप नही ।
इस पर प्रभु महावीर ने कहा " चोर अधिक समय तक अपनी चोरी नही छिपा सकता , उसका भेद खुल ही जाता है , तुम तृण के तिनके से छुपने का असफल प्रयास कर रहे हो , तुम भिन्न न होते हुये भी खुद को भिन्न दिखा रहे हो , तुम सत्य को छिपाने के लिए मिथ्यात्व का सहारा ले रहे हो " उपयुक्त तुमने जो भी बात बतायी वह पूर्ण रूप से मिथ्या है  । अन्य न होते हुये भी खुद को अन्य बता रहे हो । सर्वज्ञ प्रभु से क्या छिप सकता था भला , मंखली पुत्र गौशालक के झूठ का सारा भेद खुल गया ।

वह क्रोध के कारण तिलमिल्ला उठा उसका भांडा फूट चुका था । प्रभु महावीर ने इसलिए हि अपने संघ को सावधान किया था । प्रभु महावीर का संदेश था कि मिथात्व को सरंक्षण देना समयक्तव के लिए घातक है । अतः मिथ्या बात को व्यर्थ हि आश्रय नही देना चाहिए । मंखली पुत्र गौशालक अपनी इसी तरह की बातो से भोले जनमानस को प्रभावित करता था । परन्तु केवली प्रभु को वह कैसे भ्रमित कर सकता था ? यही तो उसकी अज्ञानता थी ।
अपनी हार के कारण उसने क्रोधित स्वर में प्रभु महावीर को सम्बोधित करते हुये कहा - " हे काश्यप ! आज मै तुझे अपने तप - तेज से भस्म कर दूगां " ।

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गौशालक द्वारा प्रभु महावीर पर आक्रमण

गौशालक कि धमकी व उसकी अशिष्ट बातो को सभी शिष्य व संघ ने सुना परन्तु अपने धर्माचार्य प्रभु महावीर की आज्ञा को ध्यान में रख सभी चुप रहे । 

परन्तु गौशालक कि व्यर्थ बातो को सुनकर एक भद्र मुनी सर्वानुभूती अनगार से चुप नही रहा गया और उसने गौशालक को समझाने का प्रयास किया परन्तु विनाशकाले विपरीत बुद्धी गौशालक को अपने हित और धर्म की बात प्रिय नही लगी और उसने क्रोध में अपनी तेजोलेश्या मुनी पर चला दी । तेजोलेशया
के प्रभाव से वह मुनी वही भस्म हो गया ।

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गौशालक का यह व्यवहार पास खडे सुनक्षत्र मुनी से सहा नही गया ,और सुनक्षत्र मुनी गौशालक को समझाने लगे परन्तु गौशालक को हितकारी वचन भी अच्छे नही लगे और दुसरे मुनी पर भी उसने तेजीलेश्या का प्रयोग किया परन्तु इस बार उसकी तेजोलेश्या का प्रभाव कम था । फिर भी तेजलेश्या से मुनी का शरीर जलने लगा , मुनी ने उसे समभाव से सहा और सबसे क्षमायाचना कर अपने प्राण त्यागे । 

गौशालक का क्रोध 2 मुनियो की जान ले चुका था, फिर भी उसका क्रोध शांत नही हुआ था और वह क्रोधवश अनर्गल बकवास किये जा रहा था । 

प्रभु महावीर ने गौशालक को समझाने का प्रयत्न किया परन्तु उसका भी विपरीत परिणाम हि हुआ । गौशालक के सिर पर मानो मृत्यु नाच कर रही हो , क्रोध के कारण वह विवेक खो चुका था , उसे प्रभु महावीर के वचन भी अहितकर लगे और उसने अपने पूर्ण वेग से अपनी समस्त तेजोलेश्या की शक्ति का प्रभु महावीर पर प्रहार किया , गौशालक को पूर्ण विश्वास था कि प्रभु महावीर का अंत हो जायेगा , परन्तु ये क्या ? आश्चर्य ! तेजोलेश्या प्रभु महावीर की 3 बार परिक्रमा कर पुनः गौशालक के शरीर में समा गयी ।

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गौशालक का शरीर भी मुनियो की तरह जलने लगा परन्तु इस बार इसका प्रभाव और मंद था जिस वजह से गौशालक के प्राण तो नही निकले पर वह जलन के कारण छटपटाने लगा । तेजोलेश्या के कारण उसका शरीर जलने लगा । वह अब निस्तेज हो गया था , उसने क्रोध वश अपनी वर्षो की तपस्या यू ही कुछ क्षणो में बहा दी । वह तेजोलेश्या को खो चुका था । अब वह किसी का भी अहित नही कर सकता था । 

गौशालक ने 2 निरापराध मुनियो की हत्या कर भयंकर पाप किया था । वह तेज के प्रभाव से जले जा रहा था हर क्षण हाय मरा ! की ध्वनी उसके मुंह से निकल रही थी ।

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गौशालक का पश्चाताप

गौशालक पुनः अपने आश्रम में आ गया , उसके पश्चात सभी को ज्ञात हो गया की प्रभु महावीर ही वास्तविक तीर्थंकर है और गौशालक मिथ्याभाषी था । कितने हि आजीवक मत के साधुओ ने सत्य धर्म जैन धर्म को अपनाया ।

आजीवक मत के आचार्य की मृत्यु तेजलेश्या के प्रयोग से 7 दिन बाद होती है , वह दिन - रात यही चितंन करता है , मै कितना अभागा था,मुझे सर्वज्ञ महाप्रभु ने अपना प्रथम शिष्य बनाया मुझे शिक्षा दी और मै मिथ्या दर्शन और मिथ्यात्व को ही सत्य मानकर अपने घमंड मे चूर रहा । मेरे हाथो दो निरापराध साधुओ की हत्या हो गई । जन्मों - जन्मों के सौभाग्य से पाये तीर्थंकर प्रभु का मैने अपमान किया , इस धरा पर मुझ सा पापी कौन होगा ? तीर्थंकर महावीर ही है, मै नही , इस प्रकार उसने 7 दिन तक स्वयं की आलोचना करते हुये प्राण त्यागे और वह जैन आगमों के अनुसार 12 वें देवलोक में गया । 

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जैन धर्म में स्वयं के पापो की आलोचना का महत्व

जैन धर्म में स्वयं की आलोचना और प्रतिक्रमण का इसलिए विशेष महत्व है , अगर जानते - अजानते कोई पाप हो जाये तो उन समस्त पापो की क्षमायाचना करनी चाहिए । 
गौशालक का जीव जो मोक्ष को पा सकता था परन्तु फिर भी भटकाव के कारण वह गलत रास्ते पर चला गया और फिर नरक का बंधन किया निरापराध मुनियो की हत्या की और अंत में अपने जीवन में किये समस्त पापो के लिए सच्चे मन से क्षमायाचना की और 12 वें देवलोक में गये । 
गौशालक का यह उपसर्ग जैन परम्परां मे बहुत हि विचित्र है , क्योकी किसी तीर्थंकर भगवान को कैवलय ज्ञान के बाद भी उपसर्ग आये यह बहुत हि दुर्लभ है । 
प्रभु महावीर क्षमाशील थे , सर्वज्ञ थे ,
हे तीर्थंकर ! महाप्रभु आपको कोटी - कोटी प्रणाम ।

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