पुणिया श्रावक की कहानी - एक सामायिक का मूल्य

Abhishek Jain
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धर्माचरण का पांचवां नियम अपरिग्रह है। गृहस्थ पूर्णतया अपरिग्रह का पालन नहीं कर सकता है, लेकिन वह अपनी इच्छा और आवश्यकताओं को सीमित कर संतोष के साथ जीवन बिता सकता है, इस सम्बन्ध में पुणिया श्रावक की कथा बड़ी प्रसिद्ध है।

एक बार राजा श्रोणिक भगवान् महावीर का उपदेश सुन रहे थे । उपदेश सुन लेने के बाद राजा ने भगवान् से पूछा-भगवन् ! मैं मर कर कहां जाऊंगा ? भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे । उन्होंने उत्तर दिया-तुम यहां से मर कर नरक में उत्पन्न होओगे । तुमने कुछ अच्छे कार्य भी किये हैं, परन्तु उससे पूर्व ही तुम्हारा नरक का आयुष्य बंध चुका है, तुमने जो अच्छे कार्य किये हैं, उनसे तुम भविष्य में प्रथम तीर्थंकर बनोगे । नरक में जाने की बात सुनकर राजा घबरा गया ।


श्रेणिक ने कहा-भगवन् ! कोई ऐसा भी उपाय है, जिससे मेरा नरक में जाना रुक सकता हो ? इस पर भगवान् महावीर ने कहा- इन चार कार्यों में से एक भी कार्य कर सको तो तुम्हारा नरक में जाना रुक सकता है ।

वे चार कार्य इस प्रकार हैं-(१) तुम्हारी दासी कपिला से दान दिलाना, (२) नवकारसी पच्चक्खाण का पालन करना, (३) कालिया कसाई से पशुबध बंद कराना और (४) पुणिया श्रावक की सामायिक मोल लेना ।

एक सामायिक का मूल्य

राजा उपर्युक्त तीन बातों में असफल हो गया तो वह स्वयं पुणिया श्रावक के घर जा पहुंचा। पुणिया श्रावक भगवान् महावीर के परम भक्त थे । उनका जीवन बहुत ही सीधा-सादा था। वे प्रतिदिन बारह आने की रुई की पूणियां लाते और उसका सूत बनाया करते थे । उसको बेचकर जो पारिश्रमिक मिलता, उसी से वे अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करते थे। 

सूत कातने के बाद जो समय मिलता, उसमें के सामायिक किया करते थे । मन में किसी प्रकार की आकांक्षाए नहीं थीं । अपने घर में राजा को देख कर पुणिया श्रावक खड़े हो गये और बड़े आदर के साथ कहा-राजन्! आज का दिन धन्य है, आप मेरे घर पधारे ! मैं सेवा में हाजिर हूं । फरमाइये, मेरे योग्य क्या सेवा है ? पुणिया के शांत जीवन और सरल प्रकृति को देख कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। 


राजा ने कहा-श्रावक जी! मैं आपके पास किसी विशिष्ट कार्य के लिए आया हूं । आशा है, आप मेरी मांग स्वीकार करेंगे । पुणिया ने कहा-राजन् ! मुझ अकिंचन के पास ऐसी क्या वस्तु है, जो मैं आपको देकर कृतार्थ हो संकू ? फरमाइये, क्या आज्ञा है ?

राजा ने कहा-मैं भगवान् महावीर के पास गया था । उन्होंने मुझे चार उपाय बताये, जिनसे मेरा नरक में जाना रुक सकता है। उनमें से मैंने तीन उपाय तो कर लिये, जिनमें मैं सफल न हो सका । अब केवल आपका ही सहारा है । अगर आप मेरे सहायक बन सकें तो मुझे नरक के महान् कष्टों से छुटकारा मिल सकता है ।

पुणिया जी ने उत्तर दिया-राजन् ! विलम्ब मत कीजिये । मैं अपना सर्वस्व आपके लिये न्यौछावर कर सकता हूं। राजा ने कहा-और कुछ नहीं, मुझे तो केवल आपकी एक सामायिक चाहिये । उसकी जो भी कीमत आप लेना चाहें, मैं देने को तैयार हूं। उससे मेरा नरक रुक सकता है।


राजा की बात सुन कर पुणिया जी विचार-मग्न हो गये । कुछ देर बाद उन्होंने कहा-राजन् ! जहां तक में धर्म का स्वरूप समझ सका हूं सामायिक कोई लेन-देन या खरीदने की वस्तु नहीं है । वह तो आत्मा की एक आध्यात्मिक अनुभूति है, जो प्रत्येक समझदार व्यक्ति अपने में अनुभव कर सकता है । आप उसे खरीदना चाहते हैं तो मैं देने को तैयार हूं , परन्तु उसका मूल्य क्या होगा, यह मुझे भी ज्ञात नहीं है ।

यदि भगवान् महावीर ने मेरी सामायिक खरीदने की बात कही है तो उसका मूल्य भी आप उन्हीं से पूछ कर आइये । वे जितना भी मूल्य बतायेंगे,उतने में मैं आपको सामायिक बेच दूँगा ।
राजा श्रेणिक नरक के दुःखों से भयभीत थे । वे हर उपाय से उससे बचना चाहते थे । वे भगवान् महावीर की सेवा में पुनः उपस्थित हुए और पुणिया जी को एक सामायिक का मूल्य पूछने लगे ।

भगवान् महावीर ने कहा-राजन् ! तुम सामायिक को खरीदना चाहते हो, परन्तु तुम्हारे पास जो धन सम्पत्ति है, वह अगर सूर्य और चंद्रमां को भी छू जाये तो भी एक सामायिक की दलाली भी पर्याप्त नहीं होगी । जब दलाली भी पूरी नहीं बनती है तो मूल्य की बात तो बहुत दूर है । वह तुम कैसे चुका सकोगे ? सामायिक का मूल्यांकन भौतिक सम्पत्ति के साथ नहीं किया जा सकता है । वह तो आत्मा की शुद्ध अनुभूति है । उससे आत्मा में समभाव पैदा होता है । धर्म कोई बिकाऊ वस्तु नही जिसे खरीदा जा सके यह तो आत्म अनुभूती का विषय है । आत्मा के आन्नद की थाह कोई भी नही माप सकता फिर उसका मूल्य कैसा ?


पुणिया श्रावक इतना अल्प परिग्रही है, कि वह सामायिक व्रत में अपने मन को एकाग्र और शुद्ध रख सकता है । उदरपूर्ति के लिये वह चरखा चलाता है और शेष समय में सामायिक की आराधना करता है।

भगवान् महावीर का उत्तर सुन कर राजा श्रोणिक निराश हो गया । लेकिन यह तत्व उसकी समझ में आ गया कि धर्म-क्रिया खरीदने की वस्तु नहीं है । वह तो अनमोल है, जिसका आचरण द्वारा अनुभव किया जा सकता है । सुख परिग्रह में नहीं, सन्तोष में है । पुणिया श्रावक कितने अल्प-परिग्रही थे । इसीलिये वे परम सुखी थे ।

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" जय जिनेन्द्र "



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