श्री पार्श्वनाथ चालीसा (अहिच्छत्र)

Abhishek Jain
0

अहिच्छत्र वह स्थान है, जहां जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी ने केवल ज्ञान प्राप्त किया था । यही अहिच्छत्र में प्रभु जी का मंदिर भी है । यही प्रभु तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी पर कमठ का उपसर्ग हुआ था इसलिए इस जगह का नाम अहिच्छत्र है , जिसका अर्थ होता है नाग की छतरी अर्थात् धरेन्द्र नाथ जी नें प्रभु की सेवा में अपने फनो को फैला लिया था , जिस वजह से प्रभु की उपसर्ग से रक्षा हुई थी । इसी कारण से प्रभु पार्श्वनाथ जी की प्रत्येक मूर्ति में हमें नाग फण धारण किये हुये हि प्रभु की प्रतिमा खुदाई से मिलती है ।

श्री पार्श्वनाथ चालीसा (अहिच्छत्र)

श्री पार्श्वनाथ चालीसा

शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूँ प्रणाम ।

उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम। ।

सर्व साधु और सरस्वती, जिन-मंदिर सुखकार ।

अहिच्छत्र और पार्श्व को, मन-मंदिर में धार ।।


पार्श्वनाथ जगत्-हितकारी, 

हो स्वामी तुम व्रत के धारी ।

सुर-नर-असुर करें तुम सेवा, 

तुम ही सब देवन के देवा ।।१।।


तुमसे करम-शत्रु भी हारा, 

तुम कीना जग का निस्तारा ।

अश्वसैन के राजदुलारे, 

वामा की आँखों के तारे ।।२।।


काशी जी के स्वामी कहाये, 

सारी परजा मौज उड़ाये ।

इक दिन सब मित्रों को लेके, 

सैर करन को वन में पहुँचे ।।३।।


हाथी पर कसकर अम्बारी, 

इक जगंल में गई सवारी ।

एक तपस्वी देख वहाँ पर, 

उससे बोले वचन सुनाकर ।।४।।


तपसी! तुम क्यों पाप कमाते, 

इस लक्कड़ में जीव जलाते ।

तपसी तभी कुदाल उठाया, 

उस लक्कड़ को चीर गिराया ।।५।।


निकले नाग-नागनी कारे, 

मरने के थे निकट बिचारे ।

रहम प्रभु के दिल में आया, 

तभी मंत्र-नवकार सुनाया ।।६।।


मरकर वो पाताल सिधाये, 

पद्मावति-धरणेन्द्र कहाये ।

तपसी मरकर देव कहाया, 

नाम ‘कमठ’ ग्रन्थों में गाया ।।७।।


एक समय श्री पारस स्वामी, 

राज छोड़कर वन की ठानी ।

तप करते थे ध्यान लगाये, 

इक-दिन ‘कमठ’ वहाँ पर आये ।।८।।


फौरन ही प्रभु को पहिचाना, 

बदला लेना दिल में ठाना ।

बहुत अधिक बारिश बरसाई, 

बादल गरजे बिजली गिराई ।।९।।


बहुत अधिक पत्थर बरसाये, 

स्वामी तन को नहीं हिलाये ।

पद्मावती-धरणेन्द्र भी आए, 

प्रभु की सेवा में चित लाए ।।१०।।


धरणेन्द्र ने फन फैलाया, 

प्रभु के सिर पर छत्र बनाया ।

पद्मावति ने फन फैलाया,

उस पर स्वामी को बैठाया ।।११।।


कर्मनाश प्रभु ज्ञान उपाया, 

समोसरण देवेन्द्र रचाया ।

यही जगह ‘अहिच्छत्र‘ कहाये, 

पात्रकेशरी जहाँ पर आये ।।१२।।


शिष्य पाँच सौ संग विद्वाना, 

जिनको जाने सकल जहाना ।

पार्श्वनाथ का दर्शन पाया, 

सबने जैन-धरम अपनाया ।।१३।।


‘अहिच्छत्र‘ श्री सुन्दर नगरी, 

जहाँ सुखी थी प्रजा सगरी ।

राजा श्री वसुपाल कहाये, 

वो इक जिन-मंदिर बनवाये ।।१४।।


प्रतिमा पर पालिश करवाया, 

फौरन इक मिस्त्री बुलवाया ।

वह मिस्तरी माँस था खाता, 

इससे पालिश था गिर जाता ।।१५।।


मुनि ने उसे उपाय बताया, 

पारस-दर्शन-व्रत दिलवाया ।

मिस्त्री ने व्रत-पालन कीना,

फौरन ही रंग चढ़ा नवीना ।।१६।।


गदर सतावन का किस्सा है,

इक माली का यों लिक्खा है ।

वह माली प्रतिमा को लेकर,

 झट छुप गया कुएँ के अंदर ।।१७।।


उस पानी का अतिशय-भारी,

दूर होय सारी बीमारी ।

जो अहिच्छत्र हृदय से ध्यावे,

सो नर उत्तम-पदवी पावे ।।१८।।


पुत्र-संपदा की बढ़ती हो,

पापों की इकदम घटती हो ।

है तहसील आँवला भारी,

स्टेशन पर मिले सवारी ।।१९।।


रामनगर इक ग्राम बराबर,

जिसको जाने सब नारी-नर ।

चालीसे को ‘चंद्र’ बनाये, 

हाथ जोड़कर शीश नवाये ।।२०।।


 पाठ करे चालीस दिन,नित हिं चालीस बार ।

अहिच्छत्र में आय के,खेय सुगंध अपार ।।

जन्म-दरिद्री होय जो,होय कुबेर-समान ।

नाम-वंश जग में चलें, जिसके नहिं संतान ।।


पढिये - श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तोत्र (कल्पबेल चिन्तामणि)

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।

एक टिप्पणी भेजें (0)