Bhaktamar Stotra Shloka-48 With Meaning

Abhishek Jain
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 Bhaktamar Stotra Shloka-48 With Meaning

भक्तामर स्तोत्र जैन धर्म का महान प्रभावशाली स्तोत्र है । इस स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग ने की थी । इस स्तोत्र की रचना संस्कृत भाषा में हुई थी , जो इस स्तोत्र की मूल भाषा है, परन्तु यदी आपको संस्कृत नही आती तो आपकी सुविधा के लिए Bhaktamar Stotra के श्र्लोको (Shloka) को हमने मूल अर्थ के साथ - साथ हिन्दी में अनुवादित करते हुये उसका अर्थ भी दिया है ।

साथ हि साथ जिन लोगो को English आती है और संस्कृत नही पढ सकते वह सधार्मिक बंधु भी English मे Bhaktamar stotra का पाठ कर सकते है । इस प्रकार से Bhaktamar Stotra Shloka-48 With Meaning की सहायता से आप आसानी से इस स्तोत्र का पाठ कर सकते है ।

चाहे भाषा कोई भी हो हमारी वाणी से श्री आदीनाथ प्रभु का गुणगाण होना चाहिए । नित्य प्रातः काल मे पूर्ण शुद्धता के साथ श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ अवश्य करें ।

Bhaktamar Stotra Shloka-48

 Bhaktamar Stotra Shloka - 48

मनोवांछित सिद्धिदायक

(In Sanskrit)

स्तोत्र-स्त्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्-निबद्धां

भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।

धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजसं

तं मानतुंगमवश समुपैति लक्ष्मीः ॥48॥

(In English)

stotrastrajam tava jinendra ! gunairnibaddham,

bhaktya maya vividhavarnavichitrapushpam |

dhatte jano ya iha kanthagatamajasram,

tam manatungamavasha samupaiti lakshmih || 48 ||

Explanation (English)

O the greatest Lord ! With great devotion, I have made 

up this string of your virtues. I have decorated it 

with charming and kaleidoscopic flowers. The devotee 

who always wears it in the neck (memorises and chants) 

attracts the goddess Lakshmi.

(हिन्दी में )

यह गुनमाल विशाल नाथ! तुम गुनन सँवारी |

विविध-वर्णमय-पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी ||

जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावें |

मानतुंग’-सम निजाधीन शिवलक्ष्मी पावें ||

भाषा-भक्तामर कियो, ‘हेमराज’ हित-हेत |

जे नर पढ़ें सुभाव-सों, ते पावें शिव-खेत ||४८||

(भक्तामर स्तोत्र के 48 वें श्लोक का अर्थ )

हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है |

" भगवान ऋषभदेव जी की जय "

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