जैन धर्म में कर्मो के प्रकार कौन - कौनसे है ?

Abhishek Jain
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जैन दर्शन के अनुसार आठ प्रकार के कर्म कौन से हैं ?


जैन दर्शन के अनुसार आठ प्रकार के कर्म मोक्ष प्राप्त होने तक सभी संसारी जीवो के बंधन रुप होते है और इन आठो कर्मो को जो जीव क्षय कर देता है , उसको मोक्ष प्राप्त हो जाता है। पहले चार कर्म का क्षय करने से जीव अरिहंत अवस्था प्राप्त कर लेते है तथा जब जीव समस्त अष्ट प्रकार के कर्मो का क्षय कर देते है तो जीव सिद्ध अवस्था प्राप्त कर सदा - सदा के लिए मुक्त हो जाता है ।


जैन धर्म के आठ प्रकार के कर्म




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जैन धर्म में कर्म के आठ प्रकार निम्न है -:

1 ज्ञानावरणीय कर्म

2 दर्शनावरणीय कर्म

3 वेदनीय कर्म

4 मोहनीय कर्म

5 आयुष्य कर्म

6 नाम कर्म

7 गौत्र कर्म

8 अन्तराय कर्म


इनकी जीवन में क्या उपयोगिता है ?

सभी जीवो के आयुष्य कर्म को छोङकर शेष सभी सात कर्मो का बंधन प्रतिपल हो रहा है, और आयुष्य कर्म का बन्ध एक भव में एक बार ही होता है । आयुष्य कर्म का बन्ध चारो गतिओ में से जिस गति हेतु होता है , वही पर उस जीव को जाना पङता है । चार गतिओं के नाम है - : नरकगति, तिर्यंचगति , मनुष्यगति और देव गति । मुक्ति प्राप्त करने कि अवस्था को कई विद्धान पंचम गति की संज्ञा देते है ।


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जैन दर्शन के कर्मवाद के सिद्धान्त के अनुसार जो जीव जैसे कर्म करता है , उसको उसी के अनुसार कर्म बंधन अवश्य होते है और उसके अनुसार अगले भवो में उसका फल भी मिलता है।पूर्व जन्मों के किये गये कर्मो का फल हम इस भव में प्राप्त कर रहे है और कर्मो के फल के अनुसार ही संसार में गरीब ,अमीर,,स्वस्थ्य, बीमार ,सुखी, दुःखी आदि होते है।

जैन-दर्शन में दिए गए कर्मों के आठ भेद व संक्षेप में उनका स्वरूप इस प्रकार है :

ज्ञानावरणीय कर्म : जिस कर्म के कारण आत्मा सहज रूप से ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाती वह ज्ञानावरणीय कर्म है। बुद्धि का तीव्र या मन्द होना, स्मरण-शक्ति ज्यादा या कम होना, यह सब ज्ञानावरणीय कर्म का प्रभाव है । अगर कोई ज्ञान की अवज्ञा करता है , पुस्तक आदी शास्त्रो ग्रन्थों का अपमान करता है तो वह ज्ञानावरणीय कर्मो का बंध करता है और उसकी बुद्धी आगामी जन्मो में क्षीण हो जाती है । अगर कोई ज्ञानी जन सद् कर्म करता है ज्ञान को समझता है उसका उसे सुफल मिलता है और वह बुद्धिमान होता है ।


दर्शनावरणीय कर्म : दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन गुण अर्थात् सामान्य बोध को आवृत करता है। इस कर्म के उदय से आत्मा की देखने की शक्ति कम हो जाती है। निद्रा आना, आँख की ज्योति मन्द हो जाना तथा अँधा हो जाना इसी कर्म के फल हैं । अगर कोई व्यक्ति साधु माहत्मा के दर्शन को अशुभ जानता है , उनका तिरस्कार करता है तो वह अशुभ कर्मो का बंधन करता है यदि वह साधु महात्मा के प्रतिदिन दर्शन करता है , वह जिन मंदिर जाकर प्रभु का प्रतिदिन दर्शन लाभ लेता है तो वह शुभ कर्म करता है ।


वेदनीय कर्म : जिस कर्म के कारण शारीरिक सुख तथा दुःख प्राप्त होते हैं वह वेदनीय कर्म कहलाता है। इस कर्म के दो भेद हैं ।  सुख प्रदान करने वाला साता-वेदनीय और दुःख प्रदान करने वाला असाता-वेदनीय कर्म कहलाता है। किसी को कष्ट पहुँचाना पाप है किसी की भलाई करना पुण्य का कार्य होता है ।


मोहनीय कर्म : जो कर्म आत्मा को मोहित करके मूढ़ बना देता है वह मोहनीय कर्म है। इस कर्म के उदय से आत्मा की विवेक शक्ति मन्द या कुंठित हो जाती है और व्यक्ति धर्म-अधर्म, गुरु-अगुरु के विषय में सही ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा आत्म-कल्याण के कार्यों में प्रवृति नहीं कर पाती। धर्म-ध्यान, त्याग-तपस्या में पुरुषार्थ नहीं हो पाता। यह कर्म जैन दर्शन में सबसे कठोर कर्म कहे जाते है जो केवल भोगने से हि छूटते हें । अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में प्रपंच करता है , झूठा देव दर्शन का दिखावा करता है , लोगो को मूर्ख बनाकर जो पैसे ऐंठते है । छली - कपटी लोग जाने अनजाने मे मोहनीय कर्म का बंधन करते है ।


आयुष्य कर्म : जिस कर्म के प्रभाव से जीव के जीवन की (आयु की) अवधि निश्चित होती है उसे आयुष्य कर्म कहते हैं। इस कर्म के उदय से जीव जन्म लेता है और इसके क्षय होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है। यह कर्म एक निश्चित क्रम में चलता है , एक जन्म में जितनी आयु है, यह कर्म उतनी निश्चित अवधी के लिए होता है , प्रत्येक जीव इस कर्म के कारण हि अपनी आयु भोगता है ।


नाम कर्म : जो कर्म शरीर, इन्द्रिय आदि की रचना का कारण है , उसे नाम कर्म कहते हैं। यह कर्म प्राणी को नये-नये नाम, रूप, आकार आदि धारण कराता है। इस कर्म के उदय से जीव कभी नरक व तिर्यंच या कभी मनुष्य व देव कहलाता है। यह कर्म जीव की गती का कारक होता है । जैन धर्म में वर्णित चार गतियां इसी कर्म सें समबंधित है ।


गोत्र कर्म : जिस कर्म के प्रभाव से लोक में प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित जाति , कुल आदि की प्राप्ति हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं। ऊँचा-नीचा कुल,खानदान, जाति तथा अच्छी-बुरी नस्लें इस गोत्र कर्म के प्रभाव से ही प्राप्त होती हैं। जीव की प्रतिष्ठा का कारक यही कर्म है, जो लोग प्रसिद्ध हो जाते है , देश समाज में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त करते है उनके गोत्र कर्म उच्च होते है ।


अन्तराय कर्म : जिस कर्म के प्रभाव से सभी अनुकूल साधनों के मौजूद होने पर भी कार्यसिद्धि नहीं होती उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। यह कर्म आत्मा की शक्ति को प्रकट होने में रूकावट डालता है और दानादि क्षमताओं पर अंकुश लगता है। परिणामस्वरूप दान, लाभ, भोग या उपभोग आदि कार्यों में सफलता नहीं मिल पाती। इस कर्म के प्रभाव से जीव कुछ करने की चाह रखता है पर वह उस कार्य को कर नही पाता । जैसे हम किसी कार्य को बढे उत्साह से शुरू करते है परन्तु बाद में कुछ समय बाद वह उत्साह नही रहता चाह कर भी कार्य सिद्ध नही होता , हर काम में अड़चन पैदा हो जाती है यही अंतराय कर्म होता है । हम सामान्य भाषा में कह देते है उसकी किस्मत में नही था पर किस्मत भी पूर्व कर्मो के आधार पर निधारित होती है ।


ये थे जैन धर्म में कर्मो के आठ प्रकार जो जीव की नियती , जन्म , भाग्य इत्यादि को तय करते है । जीव क्या कर सकता है ? वह पुरुषार्थ कर सकता है , अच्छे कर्मो के बल पर भाग्य को भी बदल सकता है । व्यक्ति इस संसार में कर्म करने के लिए स्वतंत्र है पर भोगने में नही । 


जैन धर्म में कर्म की अवधारणा बहुत विस्तृत विषय है , ये विषय इतना ज्यादा गूढ़ है कि जब तक आप स्वयं इसका अध्ययन नही करते आप इसे नही जान पायेंगें । बडे - बडे विद्धान आचार्य श्री ने इस विषय पर ग्रंन्थ रच डाले । अतः यहां सिर्फ इसकी सामान्य जानकारी मात्र दि गई है । पर एक बात तय है अच्छे कर्म करने से अच्छा फल और बुरे कर्म करने पर उसका हमेशा बुरा परिणाम हि भुगतना पड़ता है क्योकि पाप के परमाणु आत्मा से चिपक जाते है जिससे आत्मा भारी हो जाती है, पुण्य के प्रभाव से आत्मा हल्की हो जाती है । हमेशा अच्छे कर्म किजिए अगर को त्रुटी हो तो ' तस्स मिच्छामी दुक्कडम '.


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