अरहनाथ जी का जीवन परिचय

Abhishek Jain
0
प्रभु अरहनाथ जी जैन धर्म के 18वे तीर्थंकर है । प्रभु अरहनाथ जी का जन्म मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन रोहिणी नक्षत्र के दिन हस्तिनापुर में हुआ था । प्रभु अरहनाथ जी के पिता का नाम राजा सुदर्शन तथा माता का नाम मित्रसेना था ।

प्रभु की देह का रंग स्वर्ण के समान था तथा उन्का प्रतीक चिह्न मछली था,प्रभु अरहनाथ जी जैन धर्म के 18वें तीर्थंकर थे और साथ ही उसी भव में चक्रवर्ती भी थे,प्रभु अरहनाथ जी जैन धर्म में वर्णित 12 चक्रवर्ती में से सातवें (7वें) चक्रवर्ती थे ।


प्रभु अरहनाथ जी तीसरे ऐसे तीर्थंकर थे , जो तीर्थंकर होने के साथ - साथ चक्रवर्ती भी थे , प्रभु अरहनाथ जी से पहले प्रभु शांतीनाथ जी और प्रभु कुन्थुनाथ जी भी तीर्थंकर होने के साथ चक्रवर्ती भी थे।
( नोट - भगवान महावीर ने भी वासुदेव और चक्रवर्ती का पद धारण किया था , परन्तु वह अलग - अलग भव में थे । प्रभु महावीर का तीर्थंकर का भव अलग तथा चक्रवर्ती का भव अलग था )

अतः जैन धर्म में केवल 3 तीर्थंकर प्रभु शांतीनाथ जी, प्रभु कुन्थुनाथ जी और प्रभु अरहनाथ जी तीर्थंकर होने के साथ - साथ उसी भव में चक्रवर्ती भी थे

अरहनाथ जी

जिस प्रकार से चक्रवर्ती के 12 रत्न उत्पन्न होते है ,उसी प्रकार से प्रभु अरहनाथ के भी 12 रत्न उत्पन्न हुये और जिस प्रकार से तीर्थंकर प्रभु के अतिशय और कल्याणक होते है वैसे प्रभु अरहनाथ के भी हुये।
( ऐसा पूर्व के दो तीर्थंकर प्रभु शांतीनाथ जी और कुन्थुनाथ जी के साथ भी हुआ था )
तीर्थंकर प्रभु का विपुल ऐश्वर्य होता है , तीर्थंकर महाप्रभु धर्म के सुर्य होते है , उन्का ज्ञान प्रकाश समस्त अज्ञान तिमिर को हर लेता है ।


प्रभु अरहनाथ जी की आयु 84,000 वर्ष की थी , प्रभु की देह का आकार 30 धनुष था । प्रभु अरहनाथ जी ने मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी के दिन हस्तिनापुर से दीक्षा ग्रहण की थी । दीक्षा कल्याणक के साथ ही प्रभु को मनः पर्व ज्ञान की प्राप्ती हुई । 

प्रभु अरहनाथ जी का साधना काल 16 वर्ष का था , इन 16 वर्षो की साधना में प्रभु ने जन्म जन्मांतरो से चले आ रहे अपने घाती कर्मो (अष्ट कर्मो में सें चार कर्म ) का अंत कर कार्तिक शुक्ल द्वादशी के दिन निर्मल कैवलय ज्ञान की प्राप्ती की ।

कैवलय ज्ञान के साथ ही प्रभु अरिहंत , जिन ,केवली हो गये । इसके पश्चात् प्रभु ने चार तीर्थं (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) की स्थापना की तथा स्वयं तीर्थंकर कहलाये । प्रभु पाँच ज्ञान के धारक हो गये थे ।

प्रभु अरहनाथ जी का संघ बहुत विशाल था , प्रभु के संघ में 50,000 मुनी थे , प्रभु अरहनाथ जी के गणधरो की संख्या 30 थी, प्रभु के प्रथम गणधर का नाम कुंभ था । प्रभु अरहनाथ जी के यक्ष का नाम महेन्द्र देव तथा यक्षिणी का नाम विजया देवी था । 

प्रभु अरहनाथ जी ने चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन सम्मेद शिखर जी से निर्वाण प्राप्त किया । प्रभु के निर्वाण प्राप्त करते हि, प्रभु ने अष्ट कर्मो का क्षय कर 'सिद्ध' कहालाये । प्रभु सदा- सदा के लिए मुक्त हो गये ।

" प्रभु अरहनाथ जी की जय हो "


॥ इति ॥

अगर आपको मेरी यह blog post पसंद आती है तो please इसे Facebook, Twitter, WhatsApp पर Share करें ।

अगर आपके कोई सुझाव हो तो कृप्या कर comment box में comment करें ।

Latest Updates पाने के लिए Jainism knowledge के Facebook page, Twitter account, instagram account को Follow करें । हमारे Social media Links निचे मौजूद है ।

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।

एक टिप्पणी भेजें (0)