श्री गौतमस्वामी स्तोत्र (संस्कृत) - आचार्य जिनप्रभ कृत अर्थ सहित

Abhishek Jain
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श्री गौतमस्वामी स्तोत्र

(रचयिता: आचार्य जिनप्रभ)

भगवान महावीर के प्रथम शिष्य - गौतम स्वामी जी का चित्र
भगवान महावीर के प्रथम शिष्य - गौतम स्वामी जी

संस्कृत स्तोत्र (मूल पाठ)

  1. ॐ नमस्त्रिजगन्नेतुर, वीरस्याग्रिमसूनवे ।

    समग्रलब्धिमाणिक्य - रोहणायेन्द्रभूतये ॥ १॥

  2. पादाम्भोजं भगवतो गौतमस्य नमस्यताम् ।

    वशीभवन्ति त्रैलोक्यसम्पदो विगतापदः ॥ २ ॥

  3. तव सिद्धस्य बुद्धस्य पादाम्भोजरजःकणः।

    पिपर्ति कल्पशाखीव कामितानि तनूमताम् ॥ ३ ॥

  4. श्रीगौतमाक्षीणमहानसस्य तव कीर्तनात् ।

    सुवर्णपुष्पां पृथिवीमुच्चिनोति नरश्चिरम् ॥ ४ ॥

  5. अतिशेषतरां धाम्ना, भगवन्! भास्करी श्रियम्।

    अतिसौम्यतया चान्द्रीमहो त भीमकान्तता ॥ ५ ॥

  6. विजित्य संसारमायाबीजं मोहमहीपतिंम् ।

    नरः स्यान्मुक्तिराजश्रीनायकस्त्वत्प्रसादतः ॥ ६ ॥

  7. द्वादशांगीविधौ वेधाः श्रीन्द्रादिसुरसेवितः ।

    अगण्यपुण्यनैपुण्यं तेषां साक्षात् कृतोऽसि यैः ॥ ७ ॥

  8. नमः स्वाहापतिज्योतिस्तिरस्कारितनुत्विषे ।

    श्रीगौतमगुरो ! तुभ्यं वागीशाय महात्मने ॥ ८ ॥

  9. इति श्री गौतम! स्तोत्र मंत्र ते स्मरतोऽन्वहम् ।

    श्री जिनप्रभसूरेस्त्वं, भव सर्वार्थ सिद्धये ॥ ९ ॥

  10. जानिये - जैन धर्म का सामान्य परिचय

श्री गौतमस्वामी स्तोत्र: सरल हिंदी अर्थ

श्लोक 1 का अर्थ:

ॐ! तीनों लोकों के स्वामी (महावीर) के प्रथम शिष्य, समग्र (संपूर्ण) लब्धियों के माणिक्य (रत्न) के भंडार, और इंद्र के समान ऐश्वर्य वाले इंद्रभूति गौतम को नमस्कार है।

श्लोक 2 का अर्थ:

जो लोग भगवान गौतम स्वामी के चरण कमलों को नमस्कार करते हैं, उनके लिए तीनों लोकों की संपदाएं (धन-ऐश्वर्य) आपदाओं से रहित होकर स्वयं वशीभूत हो जाती हैं।

श्लोक 3 का अर्थ:

सिद्ध (लक्ष्य को प्राप्त) और बुद्ध (ज्ञानी) हुए आपके चरण कमलों की धूल का कण भी, कल्पवृक्ष की तरह, मनुष्यों की सभी इच्छाओं को पूरा करता है।

श्लोक 4 का अर्थ:

अक्षीण महानस (कभी न खत्म होने वाले भंडार) के स्वामी श्री गौतम की कीर्ति (प्रशंसा/नाम) करने से, मनुष्य लंबे समय तक इस पृथ्वी से सोने के पुष्पों को चुनता है (अर्थात अपार धन-संपदा प्राप्त करता है)।

श्लोक 5 का अर्थ:

हे भगवन! आपकी कान्ति (तेज) सूर्य की शोभा को भी अत्यधिक मात देती है, और अत्यधिक सौम्यता के कारण यह चंद्रमा की शीतलता को भी पराजित करती है। आपकी यह अद्भुत और मनोहर कान्ति है।

श्लोक 6 का अर्थ:

संसार की माया के बीज और मोह रूपी महान राजा को जीतकर, मनुष्य आपके प्रसाद (कृपा) से मुक्ति रूपी राजलक्ष्मी का स्वामी बन जाता है।

श्लोक 7 का अर्थ:

आप द्वादशांगी (जैन आगम) के विषय में रचनाकार (वेधाः) के समान हैं, जिनकी श्री इंद्र आदि देवों द्वारा सेवा की जाती है। वे लोग अगणनीय पुण्यों की कुशलता वाले हैं, जिन्होंने आपका साक्षात् दर्शन किया है।

श्लोक 8 का अर्थ:

अग्नि (स्वाहापति) के तेज को भी तिरस्कृत (फीका) करने वाले शरीर की कान्ति वाले, वाणी के स्वामी (वागीश), महात्मा श्री गौतम गुरु आपको नमस्कार है।

श्लोक 9 (फलश्रुति) का अर्थ:

श्री जिनप्रभ सूरि कहते हैं: हे श्री गौतम! इस स्तोत्र (मंत्र) का प्रतिदिन स्मरण करने वाले के लिए आप सभी अर्थों (इच्छाओं) की सिद्धि करने वाले हों।

अगर कोई त्रुटी हो तो " तस्स मिच्छामी दुक्कडम "।

" जय जिनेन्द्र "

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